हाल ही में ईरान द्वारा किए गए हमले को आप किस नजर से देखते हैं? यह सवाल वर्तमान वैश्विक स्थिति में बेहद प्रासंगिक है। ईरान ने जिस तरीके से जवाबी कार्रवाई की है, उसे समझने के लिए इतिहास और भू-राजनीति को ध्यान में रखना जरूरी है। बहुत से लोग मानते हैं कि इस्राइल की नीतियों और दबाव के चलते ईरान को इस जवाबी कदम के लिए मजबूर होना पड़ा। सवाल यह भी है कि क्या यह हमला सही समय पर हुआ, या इसमें देरी हुई? इस पर अलग-अलग राय हो सकती है, लेकिन हमला करने के निर्णय पर कोई शक नहीं है।
भारत हमेशा फिलिस्तीन के समर्थन में रहा है और आज भी कागजी तौर पर उस रुख पर कायम है। लेकिन, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और इस्राइली प्रधानमंत्री नेतन्याहू के बीच के व्यक्तिगत संबंधों के कारण भारत की स्थिति में थोड़ी अस्थिरता दिखाई देती है। यह रिश्ता किस हद तक नीतिगत निर्णयों को प्रभावित करता है, इसका अंदाजा लगाना मुश्किल है। फिर भी, इस पर ध्यान देना जरूरी है कि भारत की विदेश नीति इस्राइल और फिलिस्तीन के प्रति कितनी संतुलित है।
आज की स्थिति को देख कर लगता नहीं कि यह संघर्ष तीसरे विश्व युद्ध का रूप लेगा। अमेरिका द्वारा ईरान में सत्ता परिवर्तन की कई कोशिशें हो चुकी हैं, खासकर तब जब ईरान में इस्लामिक क्रांति का दौर था। उस वक्त ईरान कमजोर था, लेकिन अमेरिका और उसके सहयोगी मिलकर भी वहां स्थिरता नहीं ला सके। इसी तरह, इस्राइल के प्रधानमंत्री नेतन्याहू और अमेरिका के यह मानने से कि वे ईरान में अपनी मर्जी से सत्ता परिवर्तन कर सकते हैं, यह मात्र एक कल्पना है।
लेख एक नज़र में
ईरान और इस्राइल के बीच हाल ही में हुआ संघर्ष वैश्विक स्तर पर चिंता का विषय बन गया है। इस संघर्ष को समझने के लिए इतिहास और भू-राजनीति को ध्यान में रखना जरूरी है। ईरान ने इस्राइल के हमले के जवाब में कार्रवाई की है, जिसे समझने के लिए दोनों देशों की राजनीति और नीतियों को समझना होगा।
भारत की स्थिति इस मामले में महत्वपूर्ण है, क्योंकि वह फिलिस्तीन के समर्थन में रहा है, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और इस्राइली प्रधानमंत्री नेतन्याहू के बीच के व्यक्तिगत संबंधों के कारण भारत की स्थिति में थोड़ी अस्थिरता दिखाई देती है। अमेरिका की राजनीति में युद्ध का एक अलग ही स्थान रहा है, और इस्राइल भी अपने रणनीतिक लक्ष्यों को पूरा करने के लिए युद्ध का सहारा लेता है।
इस संघर्ष में सबसे अधिक पीड़ित सामान्य नागरिक होते हैं। भारत जैसे देशों को अपने कूटनीतिक रुख को स्पष्ट रखना चाहिए और युद्ध की राजनीति से दूर रहना चाहिए। यह समय है कि हम शांति के लिए ठोस प्रयास करें और वैश्विक स्तर पर न्यायपूर्ण समाधान की दिशा में कदम बढ़ाएं।
अमेरिका की राजनीति में युद्ध का एक अलग ही स्थान रहा है। उदाहरण के लिए, 2001 के 9/11 हमले के बाद जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने 2004 के चुनाव में जीत हासिल करने के लिए अफगानिस्तान और इराक में युद्ध छेड़ दिया। उनकी योजना थी कि अफगानिस्तान में जीत हासिल कर चुनाव में फायदा उठाया जाए, लेकिन जब वह योजना सफल नहीं हुई तो उन्होंने इराक पर हमला कर दिया। उन्होंने इराक को एक 'सॉफ्ट टारगेट' समझा, जहां से सफलता जल्दी हासिल की जा सकती थी।
लेकिन, युद्ध की बुनियाद झूठी थी। इराक में ‘विमानिक हथियार’ की कहानी गढ़ी गई, लेकिन सद्दाम हुसैन की गिरफ्तारी के बाद अमेरिका ने खुद मान लिया कि उनके पास ऐसा कोई हथियार नहीं था। इस झूठ के आधार पर हजारों निर्दोषों की जान चली गई और लाखों लोग विस्थापित हुए। अमेरिका की राजनीति में ऐसे युद्ध चुनाव जीतने का एक तरीका बन गए हैं, जहां वे अपने नागरिकों को युद्ध के नाटकों के जरिये गुमराह करने की कोशिश करते हैं।
गाजा में संघर्ष को एक साल होने वाला है, लेकिन इस्राइल के रणनीतिक लक्ष्यों में सफलता नहीं मिली है। हमास का खात्मा करना और अपने बंदियों को मुक्त कराना जैसे उद्देश्यों में इस्राइल असफल रहा है। यह केवल इस्राइल की नाकामी नहीं है बल्कि अमेरिका की भी नाकामी है, जो इस्राइल के इस संघर्ष का समर्थन कर रहा है। अमेरिकी राष्ट्रपति के लिए यह चुनौती है कि इस नाकामी से ध्यान हटाया जाए और चुनाव के दौरान खुद को विजेता के रूप में प्रस्तुत किया जाए।
जब ईरान ने जवाबी हमला किया, तो इस्राइल ने पहले दावा किया कि उन्होंने सारे हमलों को नाकाम कर दिया है। लेकिन बाद में यह भी स्वीकारा कि उन्हें कुछ नुकसान हुआ है। धीरे-धीरे सच्चाई सामने आ रही है, और आने वाले दिनों में और भी खुलासे हो सकते हैं। इस्राइल और अमेरिका ने अपने-आप को एक शक्तिशाली छवि के रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश की है, लेकिन वास्तविकता कुछ और है।
अमेरिका और इस्राइल दोनों देशों की राजनीति में चुनाव के दौरान युद्ध को एक रणनीति के तौर पर देखा जाता है। अमेरिकी राष्ट्रपति अपने चुनावों से पहले युद्ध छेड़कर या खत्म करके अपने लोगों को यह दिखाने की कोशिश करते हैं कि वे देश के लिए कितने महत्वपूर्ण हैं। इसी रणनीति के तहत गाजा का मुद्दा उभारा गया और अब ईरान के खिलाफ कार्रवाई की जा रही है।
इस पूरे संघर्ष में सबसे अधिक पीड़ित सामान्य नागरिक होते हैं। चाहे अफगानिस्तान हो, इराक हो, फिलिस्तीन हो या गाजा, निर्दोष लोगों की जानें जाती हैं और उनके घर उजड़ते हैं। युद्ध की राजनीति में वैश्विक शक्तियां अपनी हितों के लिए मासूमों की जानों से खेलती हैं। ऐसे में, भारत जैसे देशों को अपने कूटनीतिक रुख को स्पष्ट रखना चाहिए और युद्ध की राजनीति से दूर रहना चाहिए। यह समय है कि हम शांति के लिए ठोस प्रयास करें और वैश्विक स्तर पर न्यायपूर्ण समाधान की दिशा में कदम बढ़ाएं।
इस्राइल और ईरान के इस संघर्ष को किसी एक नजरिये से देखना गलत होगा। इतिहास और राजनीति के पन्नों में छुपी सच्चाई को समझने की जरूरत है, ताकि हम एक संतुलित दृष्टिकोण अपना सकें।
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