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आज का संस्करण

नई दिल्ली, 18 मार्च 2024

 

आत्म मुग्धता

 

 

आत्ममुग्धता एक लाइलाज बीमारी है जो सोशल मीडिया के चलते संक्रामक हो चुकी है। अगर कोई आत्मान्वेषण की बजाय मन में गिरह बाँध ले कि वह ऐसा सरस्वती पुत्र है कि जो भी लिखेगा एकदम बढ़िया होगा या उसे हर पन्द्रह दिन में किताबें छपवाने का मौलिक अधिकार मिला हुआ है तो कोई क्या कर लेगा।

          स्तंभ लेखन की मजबूरी किसी हद तक  खूब लिखने पर किसी पड़ाव पर लेखन तरल होना ही है।कोई भी साहित्यकार जीवन में एक बार शीर्ष पर होता है जो उसकी पहचान या प्रतीक बन जाता है।

      पुराकाल का हवाला बेकार है।

निस्संदेह गुलेरीजी प्रेमचंद और प्रसादजी प्रणम्य हैं। कोई दीवाना हो जाये ऐसा लेखन। इस पर वही टीका टिप्पड़ी कर सकता है जिस किसी ने उस समय का अनुशीलन किया होगा।

 उस समय सूचना संचार तकनीक न थी अतः लेखन एक सारस्वतकर्म और पूजा था । अब रातों रात शोहरत पाने का शाॅर्टकट है।तब लगभग पूरा हिन्दुस्तान अनपढ़ था।लेकिन समय की बलिहारी है।अब व्हाट्स एप्प विश्वविद्यालय की अनमोल शिक्षा और चौर्यकर्मकला सिखाने की व्यवस्था भी है।

    सौजन्य प्रतियों से अलमारियां भरी जा रही हैं।पर्यावरण का नाश करने का किसी को क्या अधिकार है।

     200 किताब लिखनेवाले को पड़ोसी नहीं जानता।जितना आवश्यक हो यानी स्वाभाविक प्रेरणा से प्रसूत हो वही लिखा जाये तो बेहतर है।तराजू पर तौलकर वजन देखकर खुश होने की जरूरत नहीं।

             सौ से अधिक किताबो के कवर छपाकर ,उन्हें बन्द अलमारी में सजाकर रखने से  हमारी आत्म मुग्धता लेखन से पर्यावरण को दूषित करने का महज उपक्रम ही तो है। एक ऐसे ही महारथी से जब अनुरोध किया गया कि वे अपनी 50 किताबो के टाइटिल एक सांस में गिना दें तो वे बमुश्किल तमाम अपनी चंद किताबो के नाम गिना सके।

यह अजीब विसंगति ही है कि हम  इतना प्रचुर लेखन का दावा करने के बावजूद  चन्द्रधर शर्मा गुलेरी की कहानी "उसने कहा था"के बाद  लिखी गयी कहानियां एक कदम आगे नही बढ़ सकी। पंडित श्रीलाल शुक्ल का उपन्यास "राग दरबारी"

आज भी लेखकीय चुनौती बना हुआ है। पंडित नवल बिहारी मिश्र का अधूरा आविष्कार वैज्ञानिक उपन्यास  आज भी जबान पर है। प्रसाद ,पंत ,निराला, महादेवी के बाद हमारी साहित्य विधा सिर्फ अपनी शैली स्थापित कर पाई है।

 यशपाल,अमृतलाल नागर,भगवती चरण वर्मा आज भी साहित्य के मानक बने हुए हैं पर हम उनकी स्मृति तक सहेज नही पा रहे है।

कविसम्मेलनॉन का साहित्यिक मंच को हमने जिस फूहड़ता से सँवारा है,उसे क्या कभी माफ किया जा सकेगा। कुल मिलाकर हमारी उपलब्धियां मात्र आत्म मुग्धता  की मिसाल मात्र  बनकर रह गयी है। (शब्द 430)

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