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आज का संस्करण

नई दिल्ली , 8 अप्रैल 2024

राजेन्द्र रंजन चतुर्वेदी

A person with glasses and a mustache

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अमीर खुसरो: हिंद मेरी जन्मभूमि,मेरा वतन ,मेरी मां की घोषणा करने वाला अमीर खुसरो एटा के पटियाली गाँव का था । ब्रज की भाषा और संस्कृति में डूबा हुआ और बहुत सुलझा हुआ कविर्मनीषी ।शेख निजामुद्दीन औलिया का शिष्य और सूफी विचारों वाला । उसने कहा था -

काफिरे इश्क इश्कम मुसलमानी मरा दरकार नीस्त।

हर रगे मन तारे गश्ता हाजते जुन्नार' नीस्त।

मुझे मुसलमानी की क्या जरूरत?मैं प्रेम का काफिर हूं।

मैं जनेऊ का क्या करूंगा,मेरी एक-एक रग तार बन गयी है!

शेख निजामुद्दीन औलिया की दृष्टि में संगीत उपासना ही था ,किन्तु सुल्तान गयासुद्दीनतुगलक से दिल्ली के कट्टर मुल्लाओं ने निजामुद्दीन औलिया की शिकायत की कि औलिया के स्थान पर संगीत होता है ।गयासुद्दीनतुगलक स्वयं भी संगीत से नफरत करता था ,उसका विश्वास था कि संगीत शरीयत के खिलाफ है !मजहर के दिन निजामुद्दीन औलिया सुल्तान के महल में पंहुचे तो शेखजादा हुसाम ने उन पर आरोप लगाया कि >> तुम्हारे यहां समां होता है । औलिया ने कहा कि >> जानते हो समां किसे कहते हैं ?हुसाम ने कहा कि >> मुझे यह तो नहीं मालूम ,पर आलिमों का कहना है कि समां हराम है ।उस समय मजहर में सुहरावर्दी-संप्रदाय के सूफी सन्त मौलाना इल्मुद्दीन मौजूद थे ।



आलेख एक नज़र में

अमीर खुसरो, जन्म 1245 ई. के पटियाली गाँव में, ब्रज की भाषा और संस्कृति में प्रवाहित थे। वे शेख निजामुद्दीन औलिया के शिष्य थे और सूफी विचारों का पालन करते थे। वे निजामुद्दीन औलिया की शिक्षा से संगीत को उपासना मानते थे।

सुल्तान गयासुद्दीनतुगलक ने संगीत को शरीयत के खिलाफ माना था और निजामुद्दीन औलिया के स्थान पर संगीत की शिक्षा निषेध की थी। अमीर खुसरो ने संगीत को मनुष्य के लिए ईश्वरीय-वरदान माना था। वे संगीत की एक परंपरा राज-दरबारों में पली और बढ़ी थी।

अमीर खुसरो ने पारसी और ब्रजभाषा का सामंजस्य किया था। वे सामंजस्य के नित नये प्रयोग करते रहे थे। अमीर खुसरो की कविताएँ बहुत लोकप्रिय थीं। उनकी मुकरी भी लोकप्रिय थी। अमीर खुसरो का जीवन संगीत और साहित्य से परिपूर्ण था।



 

वे बोले > अन्तर है ।हृदय से सुनने वाले के लिये संगीत हलाल है और वासना से सुनने वाले के लिये संगीत हराम है । सुलतान ने पूछा तो मौलाना इल्मुद्दीन ने बतलाया कि >> बगदाद में बुजुर्ग समां सुनते हैं ।सूफियों में शेख जुनेद और शेख शिवली के जमाने से प्रचलित है ।हैरतनामा [ मौलाना जिया उद्दीन बरानी ] में लिखा है कि औलिया ने अमीरखुसरो से कहा कि >>दिल्ली के उलेमा मुहम्मदसाहब की हदीस को नहीं जानते ! वे फिकह की रवायतों को श्रेष्ठ समझते हैं ।मैं नहीं समझता कि उनकी इस्लाम पर श्रद्धा है । अमीरखुसरो भारतीय संगीत के इतिहास का एक गौरवपूर्ण अध्याय बन गये थे । वे मानते थे कि >>संगीत तो मनुष्य के लिये ईश्वरीय-वरदान है ! यह सच है कि संगीत की एक परंपरा राज-दरबारों में पली और बढ़ी !किन्तु उससे भी बड़ा सच है कि संगीत साधना है ,संगीत उपासना है ।

बंगाल की विजय के बाद गयासुद्दीनतुगलक ने औलिया को हुक्म भेजा था कि मैं दिल्ली आ रहा हूं ,मेरे पंहुचने से पहले आप दिल्ली छोड़ दें ! निजामुद्दीन औलिया ने कहा >> हनोज दिल्ली दूरस्त [ दिल्ली दूर है ] । कहने की जरूरत नहीं कि अपने ही बड़े बेटे की साजिश से सुलतान की मृत्यु हो गयी और वह दिल्ली नहीं पंहुच सका । जब औलिया की मृत्यु हुई तब अमीरखुसरो ने गाया था -

गोरी सोयी सेज पर मुंह पर डाले केस ।

चल खुसरो घर आपने रैन भयी चहुंदेस !

अमीरखुसरो तो सामंजस्य का मूर्तिमान-भाव थे । संगीत हो या साहित्य , वे सामंजस्य के नित नये प्रयोग करते रहे ।अपनी कविता में उन्होंने पारसी और ब्रजभाषा का सामंजस्य इस प्रकार किया कि देखते ही बनता है -

जे हाल मिसकी मकुन तगाफ़ुल, दुराय नैना बनाय बतियाँ

कि ताबे हिज़्राँ न दारम ऎ जां! न लेहु काहे लगाय छतियाँ ।१

शबाने हिज़्राँ दराज़ चूँ ज़ुल्फ़, व रोज़े वसलत चूँ उम्र कोताह

सखी! पिया को जो मैं न देखूँ, तो कैसे काटूँ अंधेरी रतियाँ.।२

यकायक अज़ दिल, दो चश्म-ए-जादू, ब सद फ़रेबम बाबुर्द तस्कीं ।

किसे पड़ी है जो जा सुनावे, पियारे पी को हमारी बतियाँ ।३

चूँ शमअ: सोज़ां, चूँ ज़र्र: हैरां, हमेशा गिरयां, बे इश्कआं मेह ।

न नींद नैना, ना अंग चैना, ना आप आवें, न भेजें पतियाँ ।४

बहक्क-रोज़े- विसाल--दिलबर, कि दाद मारा, फरेब खुसरो

न प्रीत मनकी दुराय राखूं, जो जान पाऊँ, पिया के घतियां ।५

अर्थात्‌

बातें बना कर आंखें छिपा कर ,इस गरीब की दशा को मत भुलाओ । ए प्यारे ! अब विरह नहीं सह सकती ।मुझे छाती से क्यों नहीं लगा लेते ?तेरे बालों के समान विरह की रातें तो बडी हैं और उम्र की तरह मिलने के दिन छोटे हैं । सखी , प्रियतम को देखे बिना अंधेरी रातें कैसे कटेंगी ?

यकायक इन दोनों जादू भरी आंखों ने बहाने बनाने से मेरे धैर्य को विचलित कर दिया है । कौन है जो प्रियतम के पास जा कर मेरी पीडा को सुनायेगा ? उस प्यारे के प्रेम में दीप की तरह जलती हुई जरें की तरह घबडाती और रोती रहती हूं , न आंखों में नीद है , न शरीर में चैन है , न वे खुद ही आते हैं और न पत्र भेजते हैं । पिया के दाव को जान पाऊं किन्तु मैं तो अपनी प्रीत को छिपा नहीं सकी किन्तु पिया के दाव को जान नहीं पाई । ए खुसरो ! प्यारे से मिलने के दिन मुझे धोखा मिला ।

अमीरखुसरो ने बेटी की पीडा लिखी ;

काहे को व्याही रे बिदेस रे सुन बाबुल मोरे

हम तो रे बाबुल तेरे आंगन की चिरियां

रुगि चुगि कें उडि जांय

हम तो रे बाबुल तेरे खूंटा की गैयां

जित हांको हंकि जांय रे

सुन बाबुल मोरे ।

अमीरखुसरो की मुकरी बहुत लोकप्रिय हुईं -

रात समय वह मेरे आवे,भोर भये वह घर उठि जावे ,यह अचरज है सबसे न्यारा ,ऐ सखि साजन? ना सखि तारा!

नंगे पाँव फिरन नहिं देत ,पाँव से मिट्टी लगन नहिं देत ,पाँव का चूमा लेत निपूता ,ऐ सखि साजन? ना सखि जूता!

. ऊंची अटारी पलंग बिछायो ,मैं सोई मेरे सिर पर आयो ,खुल गई अंखियां भयी आनंद ,ऐ सखि साजन? ना सखि चांद!

अमीरखुसरो जब अलाउद्दीन खिलजी के भेजे उपहार लेकर शाहकलंदर के दर पर पानीपत आया,

उस समय कलंदर साहब गा रहे थे: >>>

वहीम खुसरवां वराआं फेले अस्तरस्त,

खुसरो कसे के खल अत एतजरीद दर बरस्त।

अर्थात जिसने अकिंचनता का राज पा लिया है.उसके लिये बादशाहों के ताज जूतियों के तले के नीचे हैं।

बुजुर्गानेपानीपत का लेखक कहता है कि खुसरो रोने लगा था।

रेनी चढ़ी रसूल की रंग मौला के हाथ,

जा की चुनरी रंग दी धन धन वा के भाग।

खुसरो दरिया प्रेम का सो उल्टी वाकी धार,

जो उबरा सो डूब गया; जो डूबा सो पार!!

दीठा बात अगम की

कहन सुनन की नाही,

जो जाने सो कहे नही जो कहे सो जाने नाहीं ।

ओ,छाप तिलक सब छीनी रे मो से नैना मिलाय के,

नैना मिलाय के, ओ सैन चलाइके ।N

अपनी छब बनाय के, जो मैं पी के पास गई,

जब छब देखी पीय की, सो मैं अपनी भूल गई ।

खुसरो रेन सोहाग की जो जागी पी के संग,

तन मोरा मन पीव का दोनों एक ही रंग।।

ए री, सखी मैं तो से कहूँ,मैं तोसे कहूँ, हाय,

मैं जो गई थी पनिया भरन को,पनिया भरन को

छीन झपट मोरी मटकी पटकी,

छीन झपट मोरी, मटकी पटकी ।

नैना मिलाय के...,...

छाप तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाय के!

बल-बल जाऊँ मैं, बल-बल जाऊँ मैं

,तोरे रंग रजवा, तोरे रंग रजवा,

अपनी सी, अपनी सी,अपनी सी रंग लीनी रे,

मो से नैना मिलाय के ।

छाप तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाय के...!!

ए री, सखी मैं तो से कहूँ,मैं तो से कहूँ, हाय,

तोसे कहूँ,

प्रेम वटी का मदवा पिलाय के,मदवा पिलाय के,

मतवारी,मतवारी कर दीन्ही रे ,मो से नैना मिलाय के ।

मोहे सुहागन किन्ही रे,मो से नैना मिलाय के।

छाप तिलक छीनी रे मोसे नैना मिलाए के।

जो तू मांगे रंग की रंगाई

जो तो मांगे पिया रंग की रंगाई,मोरा जोबन गिरवी रख ले रे, मोसे नैना मिलाय के ।

मोरी चुनरिया अपनी पगड़िया,दोनों बसंती रंग दे रे

मोसे नैना मिलाय के ।

बल बल जाऊं मैं तोरे रंग रजवा,तोरे रंग रजवा

अपनी सी अपनी सी,अपनी सी कर लीन्ही रे,

मोसे नैना मिलाय के ।

छाप तिलक सब छीनी रे,मो से नैना मिलाय के।।

(साभार: राजेन्द्र रंजन चतुर्वेदी)

 

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