जब-जब भारत निराशा के अंधकार में घिरा है तब-तब राह दिखने के लिये किसी न किसी युग पुरुष ने जन्म लिया है। स्वामी विवेकानन्द ने भी सेकड़ो वर्षों से गुलामी की यातना में पिस कर अपना सब कुछ भूल रहे भारतवासियों को उबारने के लिये ही मानो जन्म लिया था।
शंकराचार्य की तरह 'विवेकानन्द ने धर्म की पुस्तकों का मंथन किया और भारत ही नहीं विश्व को हिन्दू धर्म के शाश्वत तत्वों से अवगत कराया। स्वामी विवेकानन्द की रचनाओं पर टिप्पणी करते हुए सिस्टर निवोदिता ने लिया है" यह इतिहास में पहली बार स्वयं हिन्दू धर्म एक उच्चकोटि की हिन्दू प्रतिभा के विश्लेषण का विषय बना है।.. हिन्दू धर्म को अपने ही भवादर्शो को व्यवस्थित और संगठित करने की आवश्यकता थी।
संसार का सत्य से भयमीत न होने वाले एक धर्म की जरूरत थी। ये दोनों ही यहा मिल जाते है। एक नाजुक परिस्थित में जातीय चेतना को संग्रहीत और वाणी प्रदान करने वाले इस व्यक्ति के आविभाव से बढ़कर कोई दूसरा प्रमाण इस बात की पुष्टि के लिये नहीं दिया जा सकता था कि सनातन धर्म नित्य सजीव है, सप्राण है और भारत आज भी उतना महान है जितना वह अतीत में था।
लेख एक नज़र में
स्वामी विवेकानन्द ने भारत की उन्नति के लिए लोगों के अंधविश्वास को हटाना चाहते थे। वे मानते थे कि अंधविश्वास भारत की ही नहीं, सारे विश्व की व्यथा है।
उन्होंने कहा कि सच्चे धर्म में अंधविश्वास जैसा विश्वास या आस्था नहीं होती है। वे चाहते थे कि लोग तर्क करें और अंधविश्वास छोड़ें। स्वामी जी का मानना था कि धर्म को भी विज्ञान की तरह बुद्धि के आविष्कारों द्वारा प्रमाणित किया जाना चाहिये।
वे अंधविश्वास के विरोधी थे और मानते थे कि अंधविश्वास से मुक्त होना ही सच्चे धर्म की पहचान है।
स्वामी विवेकानन्द अंधविश्वास के विरोधी थे। अंधविश्वास भारत की ही नहीं सारे विश्व की व्यथा है। जो आज के वैज्ञानिक युग में भी किसी न किसी रूप में विद्यमान है। कोई भी देश या समाज अंधविश्वास से मुक्त नहीं है।
स्वामी विवेकानन्द अंधविश्वास को ज्ञान और धर्म का सबसे बड़ा शत्रु मानते थे। उन्होंने अपने एक भाषण में कहा था" सच्चे धर्म में अंधविश्वास जैसा विश्वास या आस्था नहीं होती है। महान धर्मगुरुओं व महापुरुषों ने सदैव अंधविश्वास दूर करने के उपदेश दिये है। किन्त कुछ लोग इस या उस आध्यात्मिक महापुरुष के अनुयायी होने का दम्भ भरते है, और भने ही उनमें कोई शक्ति न हो, सारी मानवता को आखे बंद करके विश्वास करने का उपदेश देते फिरते है। आखिर विश्वास किसमें किया जाये? बिना सोचे विचारे विश्वास करना तो आत्मा का पतन है। तुम नास्तिक भले ही हो जाओ परन्तु बिना सोचे विचारे किसी चीज में विश्वास न करो। यदि तुप बिना सोचे विचारे विश्वास करते हो तो पशु और तुममें कोई अंतर नहीं होगा। ऐसा करके तुम सारे समाज तथा आने वाली पीढ़ी को भी हानि पहुंचाते हो। तनकर खड़े हो जाओ, अंधविश्वास छोड़कर तर्क करो। धर्म विश्वास की वस्तु नहीं बल्कि होने और बनने की वस्तु है।"
स्वामी जी का मानना था कि धर्म को भी विज्ञान की तरह बुद्धि के आविष्कारों द्वारा प्रमाणित किया जाना चाहिये। यदि कोई धर्म इन अन्वेषकारों द्वारा ध्वंस प्राप्त हो जाय, तो वह सदा के लिये निर्थक धर्म था। इस अनुसंधान से धर्म का सारा मैल धुल जायगा , यदि धर्म शाश्वत है तो उसमें शाश्वत तत्व अवश्य विजयी होकर निकल आयेंगे। यदि कोई व्यक्ति आकर कहे कि अमुक महात्मा हवा में अंर्तध्यान होकर चले गये। हमें विश्वास करने से पूर्व यह तो अवश्य पूछने का अधिकार है कि उससे कुछ सवाल तलव कर सके। आप उससे इतना तो पूछ सकते है कि भई क्या तुमने या तुम्हारे पिता या पितामह ने इसे देखा था? यदि जवाब मिलता है नहीं। पर आज से पांच हजार साल पहले ऐसी घटना हुई थी।
अंधविश्वास पर और प्रहार करते हुए उन्होंने कहा अगर हमें यों ही विश्वास कर लेना होता तो ईश्वर द्वारा दी गई बुद्धि व्यर्थ है। और क्या बुद्धि के विपरीत विश्वास करना कलंक की बात नहीं है। ईश्वर द्वारा दी गई शक्ति का उपयोग न करने का हमार क्या अधिकार है। ईश्वर एक नास्तिक को अवश्य क्षमा कर देगा जो कि अपनी बुद्धि का इस्तेमाल करता है परन्तु जो अपनी बुद्धि का उपयोग नहीं करता वह अवश्य ही दण्ड का भागी होगा।
यह तो हुई धर्म और अंधविश्वास की बात। अंधविश्वास सिर्फ धर्म तक ही सीमित नहीं है। स्वामी विवेका नन्द के अनुसार साधारणतः लोग अपने आस-पास के वातावरण मैं रमे रहते है और इससे ऊपर उठने के लिए उन्हें प्राचीन अंधविश्वासों, वंशानुगत अंध- विश्वासों, वर्ग, नगर , देश के अंध विश्वासों पर विजय प्राप्त करनी होगी। जो कि आसान कार्य नहीं है।
यह बात सोचने की है कि क्या आज के युग के विज्ञान की दुहाई देने वाले लोग अंध तिश्वास से परे है? ये लोग अंधविश्वासी है किन्तु आधुनिक अंधविश्वासी । यदि आज आप किसी आधनिक अंधविश्वासी से कहे कि प्राचीनकाल में किसी साधु ने या ऋषि या पैगम्बर ने सत्य का प्रत्यक्ष करके कुछ कहा है तो वह कहेगा क्या मूर्खता की बातें करते हो पर यदि यह कहे कि यह हक्खले का मत है या हिन्डल ने बताया है तो उसे अवश्य ही सत्य मान लेंगे।
क्या हम सचमुच अंधविश्वास से मुक्त है, अंधविश्वास तो अभी भी व्याप्त है पहले धार्म का अंधविश्वास अब उसका स्थान ले लिया है विज्ञान के अंधविश्वास नै। आज के अंधविश्वास और पहले अंधविश्वास में बहुत बड़ा अन्तर है पहले के अंधविश्वास में एक जीवनप्रद अध्यात्मिक भाव आता है जबकि अधीनक अंधविश्वास को केवल काम और लोभ ही आ रहे है।
स्वामी विवेकानन्द भारत की उन्नति के लिए लोगों के अंधविश्वास को हटाना चाहते थे। उन्होंने ऐसा कभी नहीं चाहा कि हमारे अंधविश्वासो' का स्थान पश्चिम के अंधविश्वास ले लें। दुर्भाग्यवश भारत में आखिर वही हुआ जो कि स्वामी विवेकानन्द नहीं चाहते थे।
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