कोई कहता है वहीदा रहमान आज ८५ की हो गयी हैं कोई कहता है ८७ पर क्या फ़र्क़ पड़ता है।
ज़रूरी बात ये है कि उनको दादा साहेब फड़के सम्मान मिलते ही सोशल मीडिया पर सबसे अधिक ट्रेण्ड होने वाला गाना है ' 'चौदहवीं का चाँद हो'।
इससे साबित होता है कि ३ फ़रवरी को पैदा होने वालों का उम्र से कुछ लेना देना नहीं होता चाहे वो १९३६ हो या १९५०। कभी कभी कभी अपनी उम्र का ज़िक्र सार्वजनिक करना भी अच्छा लगता है,जैसे आज।
ख़ैर, बात वहीदा जी की हो रही है (अपने मन की बात कभी और)जिन्हें उनके अभिनय के साथ या शायद उससे ज़्यादा उनके नृत्य के लिए जाना जाता है।
चाहे उनका 'काँटों से खींच कर ये आँचल हो' या तीसरी क़सम का 'पान खाए सैंया हमारी हो' या एक फूल चार काँटे का 'मतवाली नार ठुमक ठुमक चली जाए'। नील कमल में वहीदा ने राज कुमार और मनोज कुमार के साथ अभिनय किया।ये एक पुनर्जन्म की कहानी है।इस फ़िल्म के एक नृत्य की ख़ासियत है की इसमें वहीदा ने महिला और पुरुष दोनों रूप में नृत्य किया था।साहिब बीबी और ग़ुलाम के 'भँवरा बड़ा नादान है' को कौन भूल सकता है।
और फिर वो गाना जो आज हर पुराना नया भारतीय गुनगुना रहा है 'चौदहवीं का चाँद हो' जिसमें कोई नृत्य नहीं है लेकिन गुरु दत्त के कैमरे ने वहीदा को देश की सर्वश्रेष्ठ सुंदरी बना दिया।
इस पदवी की भी एक कहानी है।
वहीदा ने ख़ुद एक साक्षात्कार में बताया की तमिल नाडू के एक शहर में जन्मी चार बहनों में वो सबसे साधारण थीं "बस पता नहीं क्यों कैमरे ने मुझ पर बड़ी कृपा करी और मुझे इस मुक़ाम पर पहुँचाया।"
उनके नृत्य का ज़िक्र करना इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि उनका हाल भी कुछ कुछ एकलव्य जैसा हुआ था।जब वो पहली बार नृत्य सीखने गुरु के पास गयीं तो उन्होंने साफ़ इंकार कर दिया।एक मुसलमान लड़की भारत नाट्यम कैसे कर सकती है।लेकिन वहीदा ज़िद पर अड़ी रहीं और उनको बिना अपना अँगूठा कटाए गुरु जी ने नृत्य सिखाना शुरू कर दिया।बाद में उन्होंने क्लासिक नृत्य के साथ अपनी अदाओं और ख़ूबसूरती का पूरा इस्तेमाल करते हुए भारतीय सिने पटल पर धूम मचा दी।
लेकिन अगर वहीदा के सिर्फ़ नृत्य की चर्चा होगी तो उनके अभिनय की तोहीन होगी क्योंकि उनको जो इतने सारे ईनाम मिलें हैं वो उनके अभिनय के लिए मिले हैं।
गाइड,तीसरी क़सम,नीलकमल के लिए अलग अलग जगह सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री और 'रेशमा और शेरा' के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार तो हैं ही ना जाने कितनी जगह उनका नाम भेजा गया जो उनके उत्कृष्ट अभिनय की गवाही देते हैं।
बात क़िस्सों की चल निकली है तो एक क़िस्सा 'रेशमा और शेरा' का भी।
अमिताभ बच्चन उस समय नए नए आए थे और सुनील दत्त के निर्देशन में बन रही फ़िल्म में उनका भी एक रोल था।वहीदा जी को फ़िल्म में अमिताभ बच्चन को एक थप्पड़ मारना था लेकिन दिक़्क़त ये थी की सामने अमिताभ की माँ तेजी बच्चन बैठी थीं और वो कहती थीं थप्पड़ ज़रा धीरे मारना।सुनील दत्त चाहते थे थप्पड़ की गूँज दूर तक जाए।तय हुआ की एक दिन तेजी जी से कहा जाए कि वो ना आयें और उस दिन वहीदा ने अपने रोल के साथ पूरा न्याय किया और उनको राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला।
लेकिन अमिताभ शायद उस थप्पड़ को भूल नहीं पाए।
उन्होंने एक इंटर्व्यू में इस बात का ज़िक्र भी किया है।
बाद में 'कभी कभी' में वो अपनी पत्नी वहीदा से कहते भी हैं "तुम जैसी औरत को कभी माफ़ी नहीं मिल सकती"!
पता नहीं वहीदा जी को माफ़ी मिली या नहीं पर देश ने उन्हें १९७२ में पद्मश्री और २०११ में पद्मभूषण ज़रूर दिया और अब २०२३ में दादा साहिब फलके पुरस्कार से नवाज़ा है।
वहीदा की फ़िल्मों की चर्चा सिर्फ़ भारत में ही नहीं विदेशों में भी होती है।
२००४ में सीऐटल आर्ट म्यूज़ीयम (अमेरिका) में उनकी फ़िल्मों का एक रेट्रोस्पेक्टिव भी फ़िल्माया गया जिसमें उनकी चुनिंदा फ़िल्में दिखायी गयीं।
हम सब की पसंदीदा फ़िल्में अलग अलग हो सकती हैं और होनी भी चाहिए लेकिन उसी साल (२००४) में वाशिंगटन विश्व विद्यालय में उनकी तीन फ़िल्मों प्यासा,तीसरी क़सम और गाइड पर लम्बी चर्चा हुई।
मैं वहाँ होता तो असित सेन निर्देशित 'ख़ामोशी' को ज़रूर शामिल करता जहाँ वहीदा ने अपना सर्वश्रेष्ठ अभिनव दिया और दर्शकों को ये सोचने पर मज़बूर कर दिया की अस्पताल में काम करने वाली एक नर्स या सिस्टर एक मशीन नहीं होती।उसका भी एक दिल होता है जो धड़कता है और अकेले में रो भी पड़ता है।
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