महत्वकांक्षा की मुंडेर ने साहित्य को भी कहीं का नहीं छोड़ा। हम भी उसी मुहाने पर पहुंच गए जहां राजनीति धूल धसूरित हो रही थी। पद-लिप्सा, सम्मान, उत्कोच और पुरस्कार की हवस ने साहित्यकारों को भी जकड़ लिया। चाटुकारिता और चमचागिरी ने अपने सारे कीर्तिमान ध्वस्त कर दिये।
महत्वकांक्षा के मुखौटों ने दैदिप्यमान चेहरों को विदूषक बना दिया।
ऐसा नहीं है महत्वकांक्षा का वायरस पहले नहीं था, लेकिन तब फफूंदी की तरह कहीं - कहीं नजर आती थी। जो नजर अंदाज कर दी जाती थी।
कविता, कहानी, उपन्यास के क्षेत्र में लाग डांट तो थी लेकिन मर्यादा की लक्ष्मण रेखाओं में बंधी हुई थी। संस्कार आड़े आ ही जाते थे। उक्ति वैचित्रय के बहाने छेड़छाड़ की जाती थी। साहित्य में नवें रस हास्य पर व्यंग्य शालीनता के परिवेश में था। हास्यपद से बचने के लिए उपलब्ध कटाक्ष को लेकर अपनाकर व्यंग्य आगे बढ़ा और शैलीगत विद्या सराही जाने लगी। व्यंजना और लक्षणा को रचना का गुण मानते हुए भी हिंदी में व्यंग की अवधारणा भारतेंदु युग के पहले नहीं हो सकी। इसके कई कारण हो सकते हैं। पर प्रमुख कारण है, समाज में उभरने वाले विरोधाभास की समझ का अभाव, भारतेंदु युग के लेखकों भारतेंदु, बालकृष्ण भट्ट, प्रताप नारायण मिश्र, और बालमुकुंद गुप्त ने अपने समय की पहचान विकसित होने पर व्यंग वैसे ही झलक उठा जैसे स्वस्थ मुख पर प्रसन्नता झलकती है। वस्तुतः व्यंग्य व्यंजना का सहज धर्म है। यह शब्दों का खेल नहीं है। मध्य कालीन कविता में जहाँ कविता प्रयत्नसाध्य थी स्वच्छ व्यंग्य की गुंजाइश नहीं थी। ज्यों-ज्यों रचनाकारों की मुठभेड़ अपने समय के समस्याओं से गहराती गई त्यों-त्यों हमारी भाषा के तेवर बदलने लगे।
पहले हास्य व्यंग के कमजोर जाल में बहुत छोटी मछलियां पकड़ में आती थीं। धीरे-धीरे वह इतना मजबूत हो गया कि बड़े-बड़े मगरमच्छ तो क्या पूरी संसद को घेर लेने के काबिल हो गया।
हरिशंकर परसाई, शरद जोशी, रविंद्र नाथ त्यागी, अजातशत्रु, कृष्णा चराटे, अजात शत्रु, लतीफ घोंघी, गोपाल चतुर्वेदी, डा. ज्ञान चतुर्वेदी, प्रेम जनमेजय, हरीश नवल ,सुरेश कांत, अरविंद तिवारी से लेकर सुभाष चंद्र श्रवण कुमार उर्मलिया, आलोक पुराणिक, सुधीर ओखदे और यशवंत कोठारी से यशवंत व्यास तक यह परंपरा बेलौस बेरोक टोक चलती दिखाई दी।
अनुराग बाजपेयी में भी दम खम दिखता है। लेकिन बाद में व्यंग्य की पीढ़ियों में द्वंद नजर आने लगा। नए-नए मठ बन गए। सबने व्यंग्य विमर्श के बहाने अपने-अपने दारुल उलूम खोल लिए। जहाँ फतवे जारी करने की फैक्ट्री लग गई। और छल कबड्डी की तर्ज पर व्यंग्य लीला का खेल शुरु हो गया।
यह भी हम भूल गए, कि व्यंग्य को उपहास का मुखौटा नहीं पहनाया जा सकता, इससे व्यंग्य लेखन ही हास्यपद हो जाएगा। गाली गलौज को जब़ानदराजी का जामा पहनाने वाले यह भी भूल गए। कि गाली भी तमीज के साथ दी जाती है। और इससे भाषा अपना नैसर्गिक गुण खो देती है।
व्यंग लेखन की पीढ़ियों में चल रहे द्वंद की आपाधापी से हमें उबरना ही होगा। अपना उत्तरदायित्व समझना होगा। आज जब व्यंग्य की तीन पीढ़ियां सामने हैं, तो उनके बीच समझ विकसित करने की जिम्मेदारी भी उन्हीं की है।
कुछ ही पहले जो हाशिए पर थे, वह आज केंद्र में हैं इस सफलता से हास्य व्यंग के रचनाकारों का अहंकार नहीं बढ़ना चाहिए, इससे उनका उत्तरदायित्व बढ़ जाता है क्योंकि आज जब वह चकाचौंध के केंद्र में है,हजारों निगाहें उन पर टिकी हुई है। उन्हें ना केवल दो टूक बेलौस रचनाएं करनी होंगी। सोशल मीडिया के व्यामोह से भी बचना होगा।
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