अवध के नवाबों का मोहर्रम में खास योगदान रहा है। खासकर लखनऊ में आज भी मोहर्रम का शाही अंदाज इन्हीं नवाबों की देन है। जिसमें आसिफी इमामबाड़े से मोहर्रम की 1 तारीख को उठने वाली शाही मोम की जरी (करीब एक कुंतल मोम से बना ताजिया) का जुलूस हो या फिर 7 मोहर्रम को निकलने वाले शाही मेहंदी का जुलूस। मातमी धुन बजाते हुए बैंड, घोड़े, हाथी, फलों, मेवों से सजे हुए शाही थाल और साथ में मातम करते हुए मातमदार। सदियों से मोर्हरम की खास तारीखों पर निकलने वाले इन शाही जुलूसों को देखने के लिए हर मजहब के लोग जमा होते हैं।
लखनऊ से रिश्ता रखने वाली, चार साल की उम्र से शासत्रीय संगीत की शिक्षा लेने वाली सुनीता झिंगरन पूरे हिंदुस्तान में हुसैनी ब्रह्म्ण के नाम से जानी जाती हैं। इमाम हुसैन और उनके परिवार से उनकी मोहब्बत उनकी अवाज में दर्द बनकर बयां होती है। सुनीता कहती हैं कि, मैं पिछले 27 साल से मिर्सिया और सलाम पढ़ रही हूं। मैंने स्वर्गीय क़ारी हैदर हुसैन से बकायदा इसकी तालीम ली है। कई बार मुझसे भी सवाल होता है कि हिंदु ब्राह्म्ण होते हुए इमाम हुसैन और उनके परिवार से मोहब्बत क्यों? तब मैं उन्हें यह शेर सुना देती हूं कि
आंख में उनकी जगह दिल में मकां शब्बीर का
यह जमीं शब्बीर की यह आसमां शब्बीर का
जब आने को कहा था कर्बला से हिंद में
उसी रोज से हो गया हिंदोस्तां शब्बीर का।
(इमाम हुसैन को शब्बीर भी कहते हैं)
सुनीता कहती हैं कि इमाम हुसैन किसी एक क़ौम के नहीं बल्कि हर क़ौम के हैं। तभी तो किसी ने क्या खूब कहा है कि
इंसान को बेदार तो हो लेने दो
हर क़ौम पुकारेगी हमारे हैं हुसैन।
जैसा हम जानते है आज से चौदह सौ साल पहले करबला (ईराक का एक शहर) में एक ऐसी जंग हुई जिसमें एक तरफ जालिम शासक यजीद इब्ने माविया (माविया का बेटा)की हजारों की फौज थी तो दूसरी तरफ अद्ल ओ इंसाफ, इस्लाम की सच्ची तस्वीर को दुनिया के सामने लाने वाले हजरत इमाम हुसैन (प्रोफेट मोहम्मद के नवासे) और उनके 72 साथी थे। इन 72 साथियों में इमाम हुसैन का 18 साल के जवान बेटे हजरत अली अकबर थे तो छह माह के पुत्र अली असगर भी शामिल थे। इमाम हुसैन के बेटों के साथ-साथ उनके भाई, भतीजे, भांजे, दोस्त सभी को, तीन दिन की भूख और प्यास की हालत में एक दिन में शहीद कर दिया गया था। यह एक ऐसी जंग थी जिसमें जीत कर भी यजीद हार गया था और इमाम हुसैन की अपने 72 साथियों के साथ दी जाने वाली शहादत आज भी उतनी ही मौजू है जितनी 14 सौ साल पहले थी। इमाम हुसैन के इसी अजीम बलिदान की याद में शिया मुस्लिम मोहर्रम मनाते हैं।
मोहर्रम इस्लामी कैलेंडर का पहला माह है। इसी माह की दस तारीख यौमे आशूरा को करबला में इमाम हुसैन ने इस्लाम को बचाने के लिए, हक और इंसाफ को जिंदा रखने के लिए ऐसी कुरबानी दी, जिसकी मिसाल दूसरी नहीं मिलती। इस कुरबानी को याद करके पूरी दुनिया में मोहर्रम मनाते हैं, मातम, मर्सिया यहां तक अपना खून बहा कर हुसैन के चाहने वाले रो रो कर उन्हें याद करते हैं। किसी शायर ने खूब ही कहा है- कत्ले हुसैन असल में मरग-ए-यजीद है, इस्लाम जिंदा होता है हर कर्बला के बाद … दरअसल, कर्बला की जंग हर धर्म के लोगों के लिए मिसाल है। यह जंग बताती है कि जुल्म के आगे कभी नहीं झुकना चाहिए, चाहे इसके लिए सिर ही क्यों न कट जाए और सच्चाई के लिए बड़े से बड़े जालिम शासक के सामने भी खड़ा हो जाना चाहिए।
इमाम हुसैन जब अपने घर मदीने से करबला की ओर चले थे तो उनके साथ उनका पूरा परिवार भी था। जिसमें उनकी पत्नी, बहने, बेटियां और भाई की पत्नी सभी थे। 10 मोहर्रम को करबला की जंग में इमाम हुसैन और उनके साथियों का कत्ल करने के बाद भी यजीद का जुल्म रुका नहीं था। इमाम हुसैन के परिवार की महिलाओं पर जुल्म की इंतेहा कर दी थी। मैदान में लगे उनके खेमों (टेंट) में आग लगा दी थी। इस आग में इमाम हुसैन की चार साल की बेटी जनाबे सकीना भी थीं। इस आग में इमाम हुसैन के बड़े बेटे जैनुल अबेदीन जो उस वक्त बहुत बीमार थे और बेहोशी की हालत में थे। उन सबको इमाम हुसैन की बहन जनाबे जैनब ने मुश्किल से बचाया था। परिवार की सभी महिलाओं को छोटे-छोटे कैदखानों में एक साथ तक कैदी बना कर रखा गया था। इस कैद में ही चार साल की सकीना मर गई थीं जिनको उसी कैदखाने में दफनाया गया था।
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लेखक ने जागरण आईनेक्स्ट और अमर उजाला में पत्रकार के रूप में कार्य किया और एनबीटी में विशेष संवाददाता के रूप में अपनी सेवाएं दीं। 2020 के बाद से वह फ्रीलांस पत्रकारिता कर रही हैं।
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