अब जमाना ऑनलाइन संवेदना जताने भर का है. वह दिन हवा हुए जब शोक संवेदना व्यक्त करने के लिए दरवाजे पर पास पड़ोस के लोगों की भीड़ लग जाती थी. पूरा मोहल्ला शोक संतप्त नजर आता था. हर किसी की आँख छलकती महसूस होती थी. कंधा लगाने के लिए होड़ लगा करती थी.
अब हर किसी की शोक संवेदनायें फेस बुक तक सिमट गयी हैं. दाह संस्कार बाजार मे प्रवेश कर चुकी है. देश भर मे चर्चित दिलवाली दिल्ली मे ऐसी कई दुकाने खुल चुकी हैं जिसमे कफन, फूल मलाओं से लेकर टिकटी तक सजावट के बतौर रखी हुई हैं, कंधा देने वालों तक की समुचित व्यवस्था बदस्तूर है. सचमुच दिल्ली बड़े दिल वालों की ही है. शोक संवेदनाये भी पैसा फेंक कर खरीदी जा सकती हैं.
इसका एहसास तब हुआ जब मेरे एक करीबी मित्र जिनसे मिलने के लिए प्रेस क्लब की मेज पर लोगों का ताँता लगा रहता था, के परिवारिक सदस्य का निधन होने पर उन्होंने अपने परिचित मित्रों को अपनी बहन के निधन की खबर दी. प्रायः सभी ने पूछा -हवन कब है? यार!अभी तो दाह संस्कार करना है! मित्रो ने रास्ता सुझाया -हम नंबर भेज रहे हैं. फोन करलें, शव वाहन आजायेगा. पांच से दस हजार और पड़ेंगे दूसरे दिन दाह संस्कार की भस्म भी आपके घर पहुंचा देगा. इस जवाब को सुनकर हम सभी आज तक कसमसा रहे हैं.
पहले भी मरने मारने की बातें जबानी होती थीं अब भी जबानी होती हैं . जो दूरदराज़ होने के नाते मौके हालत पर नहीं पहुंच पाते वें ऑनलाइन होने की खबर आई नहीं शोक संवेदना की छतरी ताने तैयार रहते हैँ.तार मिलते ही अनहोनी का लोग अंदाज़ लगाने लगते थे. मृत्यु समाचार की खबर के पोस्टकार्ड का कोना फाड़ कर भेजा जाता था.
चंद दिनों पहले मुझे भी ऐसी ही स्थिति का शिकार होना पड़ा. मेरे अति निकट मित्र के अकस्मात निधन की खबर मेरे एक साहित्यिक मित्र ने देकर पैरों तले जमीन खिसका दी. मेरे पूछने पर उन्होंने व्हाट्सप्प के एक ग्रुप के किसी तिवारी जी का उल्लेख किया. मैने अपने मित्र के फ़ोन पर पुष्टि करने की कोशिश की लेकिन फोन नहीं उठा. घबराहट मे फेस बुक पर एक छोटी सूचना अन्य मित्रो के लिए लिख दी. शोकाकुल लोगों की प्रतिक्रिया आने लगी. मन नहीं माना. प्रयास करता रहा. अचानक मित्र के परिवार जनों से सम्पर्क फोन पर हो गया. तब सही स्थिति का पता चल पाया. कहा गया कि वें अस्पताल मे हैं. आज घर जाने वाले थे लेकिन डाक्टरों ने आई सी ओ से डिस्चार्ज नहीं किया. इसके बाद खबर देने वाले साथी को भी अवगत कराया की सूचना भ्रामक निकली है. साथ ही फेसबुक मे भी निधन की सूचना भ्रामक होने का संशोधन डाला. अचरज यह देख कर लगा कि उसके बाद भी ईश्वर उन्हें शीघ्र स्वस्थ करे के साथ श्रद्धांजलि भी देते रहे.
सुनते हैं जिस व्यक्ति कि मृत्यु की भ्रामक खबर दी जाती है उसकी आयु और बढ़ जाती है. लोकनायक जयकाश नारायण कि मृत्यु कि भ्रामक समाचार आने पर पूरी संसद तक ने श्रद्धांजलि दे दी थी. यही नहीं जागरण अख़बार मे राष्ट्र कवि सोहन लाल द्विवेदी के निधन का समाचार छपने पर उत्तर प्रदेश सरकार ने राजकीय सम्मान के साथ उनका दाह संस्कार करने का शासकीय आदेश तक जारी कर दिया था जिसे बाद मे निरस्त करना पड़ा . लोक नायक और राष्ट्र कवि उसके बाद भी जीवित रहे.
शायद डिजिटल संवेदना से जुड़ी भीड़ शोक संवेदना का यही तरीका बेहतर समझती है . किसी की भी मृत्यु की खबर आई नहीं की वें ऑनलाइन हो जाते हैं. निधन की सूचना का श्रोत क्या हैँ, कब उसकी, कैसे, किसने मृत्यु की जानकारी दी है, कितनी सही हैँ इसकी जाँच पड़ताल करने के बजाय शोक श्रद्धांजलि देने की ऑनलाइन कतार लगना ज्यादातर लोगों को अधिक सुविधा जनक लगता हैँ.कहीं यह संवेदना डिजिटल अस्तांचल तो नहीं है
वरिष्ठ साहित्यकार सेवाराम त्रिपाठी कि टिप्पणी को भी इस संदर्भ अंत मे संबद्ध करना चाहूंगा. उनका भी मानना है कि 'सच की शिनाख्त नहीं होती और झूठ का आक्रमण हो रहा है। न कोई छानबीन और न कोई पुष्टि। आश्चर्य है कि वो समूची चीज़ें बिना देखे और सोचे समझे बिना पूछे, बिना पूरा पढ़े गाज की तरह गिर रही हैं।लेखक की संवेदना तक सोशल मीडिया में दम तोड़ रही है। बहुत आश्वस्त हूं कि समूची गिरावट के बावजूद अभी भी कुछ लोग संजीदा हैं।'
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